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कविता-कंचनकाया -05-Jul-2022

कविता-कंचनकाया

सुंदर कहूं कि मायावी काया 
यह बात समझ मैं ना पाया ,
सुंदरता तो मन में होती है 
माया होती कंचन काया |
क्या समझ ना पायी थी सीता 
कंचन काया की वह माया ,
या गुण ही कंचन की है ऐसा 
जिससे कोई बच ना पाया |
ऋषि मुनि को यह किया विखंडित 
मन को किसके यह ना भाया,
रूप आशंकित बड़ा अचंभित 
समझ इसे ना कोई पाया |
राजा हो या हो शासक 
है कौन जिसे वह छला नहीं ,
अंग अंग में रूप रंग में 
है कौन सी ऐसी कला नहीं |
रीत पुरानी नीति पुरानी
 बीते समय की बनी कहानी ,
 पर आज बनाए भी बैठी है 
 कंचन काया रूप सुहानी |
 क्यों खिंच जाता है हर कोई 
 रूप देखकर अंग सुनहरी 
 मधुर मधुर मुस्कान जिज्ञासा 
 भर देती है भाव शिकारी |
 माया की यह नई कहानी 
 भरेगी जज्बा जोश जवानी ,
 हर राम भगेगा पीछे इसके 
 तीर तानकर खींचा तानी |
 माया बन गई मन की छाया 
 चित् चितवन में लोभ समाया ,
 भाव स्वभाव की लक्ष्मण रेखा 
 बांध कब तलक किसको पाया |
 हर युग की हर बात सही है 
 बस सोंच सोंच की बात रही है ,
 घर घर रावण घर-घर राम 
 भले ही त्रेता आज नहीं|
रचनाकार-रामबृक्ष, अम्बेडकरनगर

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6 Comments

Saba Rahman

06-Jul-2022 08:56 PM

Nice

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Seema Priyadarshini sahay

06-Jul-2022 10:12 AM

बेहतरीन👌👌

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Swati chourasia

06-Jul-2022 07:14 AM

बहुत ही सुंदर रचना 👌👌

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